22-जनवरी-2013 20:17 IST
इस समय अधीनस्थ अदालतों की स्वीकृत संख्या करीब 18800
दिल्ली में गत वर्ष 16 दिसंबर को चलती बस में एक छात्रा से सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद से ही देश में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों से संबंधित मुकदमों की तेजी से सुनवाई के लिये त्वरित अदालतें गठित करने की मांग जोर पकड़ रही है।
इस घटना के बाद दिल्ली सरकार ने पांच त्वरित अदालतें गठित करने का फैसला किया और इन अदालतों ने काम करना भी शुरू कर दिया है। दिल्ली सरकार ने 150 नये न्यायिक अधिकारियों और उनकी मदद के लिये 1085 सहयोगी कर्मचारियों की नियुक्ति का फैसला किया है।
महाराष्ट्र और पंजाब सहित कुछ अन्य राज्यों ने महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों, विशेष रूप से यौन उत्पीड़न और बलात्कार से संबंधित मुकदमों की तेजी से सुनवाई के लिये त्वरित अदालतें गठित करने की दिशा में कदम उठाये हैं। लेकिन कई राज्यों ने इस दिशा में अपेक्षित तत्परता नहीं दिखायी है।
यही वजह है कि कई राज्यों में गैर सरकारी संगठनों और महिला संगठनों की ओर से बलात्कार और यौन हिंसा से जुड़े मुकदमों की तेजी से सुनवाई के लिये बड़ी संख्या में त्वरित अदालतों के गठन की मांग लगातार जोड़ पकड़ रही है।
देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों की बढ़ती संख्या से निबटने के इरादे से ही केन्द्र सरकार ने हाल ही में सभी राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को 2000 नयी अधीनस्थ अदालतों के सृजन के बारे में पत्र भी लिखा है। इस समय अधीनस्थ अदालतों की स्वीकृत संख्या करीब 18800 है।
इससे पहले, देश के प्रधान न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने भी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को इस संबंध में पत्र लिखा था। प्रधान न्यायाधीश ने इस पत्र में राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन प्रणाली के तहत ‘नीति और कार्ययोजना‘ की ओर ध्यान आकर्षित करते हुये लिखा था कि 16 सितंबर, 2012 की स्थिति के अनुसार देश की अधीनस्थ अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के 3670 पद रिक्त थे।
प्रधान न्यायाधीश भी चाहते हैं कि महिलाओं के प्रति अपराधों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई तेजी से हो। उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को लिखे पत्र में प्रधान न्यायाधीश ने उच्च न्यायालय और जिला अदालतों के स्तर पर ऐसे अपराधों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर करने पर जोर भी दिया है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश की अधीनस्थ अदालतों में करीब पौने तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं।
अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या को देखते हुये ही 11वें वित्त आयोग की सिफारिश पर केन्द्रीय सहायता से राज्यों में 1734 त्वरित अदालतें गठित की गयी थीं। केन्द्रीय सहायता से शुरू की गयीं त्वरित अदालतों ने सन 2000 से 2011 की अवधि में त्वरित अदालतों ने करीब 33 लाख मुकदमों का निबटारा भी किया था।
अधीनस्थ न्यायपालिका राज्य का विषय है। इसलिए त्वरित न्याय प्रदान करने की प्रणाली को अधिक सुदृढ बनाने और अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों पर नियुक्तियों के अलावा नयी अदालतों के गठन और नये पदों के सृजन की दिशा में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से राज्य सरकार को ही कार्यवाही करनी है।
राज्यों ने केन्द्रीय सहायता मिलने तक त्वरित अदालतों को बनाये रखा लेकिन सहायता बंद होने के बाद उन्होंने इस मामले में अधिक दिलचस्पी नहीं ली। कुछ राज्यों ने केन्द्रीय सहायता बंद होने के बाद जहां त्वरित अदालतों को नियमित अदालतों में परिवर्तित कर दिया था जबकि कुछ अन्य राज्यों ने केन्द्रीय सहायता के बगैर ही त्वरित अदालतों को जारी रखा है।
अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने और जनता को सस्ता और शीघ्र न्याय प्रदान करने के लिये केन्द्र सरकार ने समय समय पर कई नये प्रयोग किये हैं। इन्हीं प्रयोगों के तहत जहां कुछ राज्यों में प्रातः कालीन तो कुछ राज्यों में सायंकालीन अदालतें शुरू की गयीं ।
इसी तरह देश की ग्रामीण जनता को छोटे छोटे विवादों के निबटारे के लिये ग्राम न्यायालयों की स्थापना की परिकल्पना की गयी। ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिये ग्राम न्यायालय कानून, 2008 के तहत इस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, ओडिशा और कर्नाटक में 150 से अधिक ग्राम न्यायालय काम कर रहे हैं।
13वें वित्त आयोग ने 2010-15 की अवधि में राज्यों में न्यायिक सुधार के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए पांच हजार करोड रूपए के अनुदान की सिफारिश की थी। केन्द्रीय सहायता से इस अवधि के दौरान राज्यों को कई महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। इनमें राज्यों में अदालतों में उपलब्ध सुविधाओं के साथ ही अदालत के काम के घंटे बढ़ाने और पालियों में अदालतों की बैठक आयोजित करना, नियमित अदालतों का काम का बोझ कम करने के लिए लोक अदालतों को अधिक सक्रिय करना, विवादों के समाधान के लिए वैकल्पिक विवाद निबटान तंत्र को बढावा देना और प्रशिक्षण के माध्यम से न्यायिक अधिकारियों और लोक अभियोजकों की कार्य क्षमता में वृद्धि करना जैसे उपाय भी शामिल हैं।
पिछले कुछ दशकों में अदालतों में लंबित मुकदमों और नये मुकदमों की संख्या में काफी वृद्धि हुयी है लेकिन इस अनुपात में नयी अदालतों का गठन और न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की संख्या में ही वृद्धि नहीं हो सकी है। इस तथ्य की ओर उच्चतम न्यायालय से समर्थित राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन प्रणाली ने भी ध्यान आकर्षित किया है।
राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन प्रणाली के आंकडों के अनुसार पिछले तीन दशक में न्यायाधीशों और अदालतों की संख्या में वृद्धि की तुलना में मुकदमों की संख्या दुगुनी रफ्तार से बढी है। यदि न्यायिक प्रणाली का इसी रफ्तार से विस्तार होता रहा तो अगले तीन दशकों में मुकदमों की संख्या बढकर 15 करोड़ हो जायेगी और इनके निबटारे के लिये कम से कम 75 हजार न्यायाधीशों और अदालतों की आवश्यकता पड़ सकती है।
राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन प्रणाली के इस अनुमान के मद्देनजर जरूरी है कि अदालतों में लंबित मुकदमों के तेजी से निबटारे की दिशा में ठोस कदम उठाये जायें। अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने के लिये स्थाई रूप से त्वरित अदालतों का गठन एक ठोस विकल्प हो सकता है।
अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने के लिये अधिक उचित होगा कि राज्य सरकारें महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के मुकदमों की तेजी से सुनवाई की जिम्मेदारी विशेष त्वरित अदालतों को सौंपने के साथ ही जघन्य अपराधों से संबंधित दूसरे मुकदमों के शीघ्र निबटारे के लिये भी अधिक से अधिक त्वरित अदालतें गठित करें।
अधीनस्थ अदालतों और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर तेजी से नियुक्तियां करने के इरादे से जुलाई 2011 में एक विशेष अभियान शुरू किया गया था। इस अभियोग की संतोषजनक प्रगति को देखते हुये इसकी अवधि बढ़ायी भी गयी थी।
न्यायपालिका में बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए केन्द्र सरकार की सहायता से एक योजना भी चल रही है जिसके अंतर्गत अदालतों की इमारतों साथ ही न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के लिए मकानों का निर्माण हो रहा है। इस योजना पर अमल के लिए केन्द्र सरकार और राज्यों को 75:25 के अनुपात में खर्च वहन करना है।
महिलाओं के प्रति अपराधों से संबंधित मुकदमों के तेजी से निबटारे के लिये त्वरित अदालतें गठित करने का निर्णय सराहनीय है लेकिन बेहतर होगा यदि लंबे समय से अदालतों में लंबित दूसरे आपराधिक मामलों के तेजी से निबटारे के लिये भी अधिक संख्या में त्वरित अदालतें गठित की जायें।
इस तरह की त्वरित अदालतों के गठन और उसके लिये न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में केन्द्र सरकार की सहायता से 2000 में शुरू की गयी त्वरित अदालतों की योजना पर हुआ क्रियान्वयन राज्यों के लिये काफी मददगार हो सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि न्यायिक सुधारों के लिये केन्द्र सरकार की योजनाओ और प्रयासों को सफल बनाने में राज्य सरकारें अधिक सक्रिय भूमिका निभायें।
उम्मीद है कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को प्रधान न्यायाधीश के पत्र तथा केन्द्र सरकार की इस दिशा में पहल के बाद राज्यों में त्वरित अदालतें गठित करने का काम जोर पकड़ेगा। इस तरह के प्रयासों से जहां महिलाओं के प्रति अपराधों से संबंधित मुकदमों का तेजी से निबटारा होगा और अपराधियों को उनके कुकृत्य के लिये समय से कठोर सजा मिल सकेगी वहीं अधीनस्थ अदालतों में काम का बोझ कम होगा और नागरिकों को तेजी से न्याय भी सुलभ हो सकेगा।
* लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
वि.कासोटिया/अनिल/सुजीत-26
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